जितने ज़ियादा हो गये उतने ही कम हुये
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पिनहां था दाम सख़्त क़रीब आशियां के
उड़ने ना पाये थे कि गिरफ़्तार हम हुये
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हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है
यां तक मिटे कि आप हम अपनी क़सम हुये
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सख़्ती_कशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर
वो लोग रफ़्ता-रफ़्ता सरा_पा अलम हुये
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तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुये
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लिखते रहे जुनूं की हिकायत-ए-खूंचकां
हर चन्द इसमें हाथ हमारे क़लम हुये
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अल्लाह रे! तेरी तुन्दी-ए-ख़ू जिसकी बीम से
अज़्ज़ा-ए-नाला दिल में मेरे रिज़्क़े-हम हुये
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अहल-ए-हवस की फ़तह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो पांव उठ गये वो ही उनके अलम हुये
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नाले अदम में चन्द हमारे सुपुर्द थे
जो वां ना खिंच सके सो वो यां आ के दम हुये
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छोड़ी ’असद’ ना तुमने गदाई में दिललगी
साइल हुये तो आशिक़-ए-अहल-ए-करम