Thursday, July 8, 2010
पास मुझ आतिशबजां के किस से ठहरा जाये है..
Monday, November 2, 2009
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
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जाता हूं दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुये
हूं शम्मा-ए-ख़ुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा
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मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायान-ए-दस्त-ए-बाज़ू-ए-क़ातिल नहीं रहा
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बा-रू-ए-शश जिहत दर-ए-आईना_बाज़ है
यां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल नहीं रहा
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वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाईल नहीं रहा
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गो मैं रहा रहीं-ए-सितम हाय रोज़गार
लेकिन तेरे ख़्याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
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दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट के वां
हासिल सिवाय हसरत-ए-हासिल नहीं रहा
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बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर ’असद’
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
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नियाज़=offering, शम्मा-ए-कुश्ता=Extinguished lamp, दरख़ुर=Worthy, तदबीर=Solution/Remedy,
शायान=Worthy, दस्त=Hand, बा-रू=in front, शश=Six, जिहत=Direction, इम्तियाज़=Distinction,
नाकिस=incomplete, क़ामिल=Complete, वा=Open, ग़ैर अज़=Other than, हाईल=Obstacle,
रहीं-ए-सितम=burdened, ग़ाफ़िल=Careless, बेदाद=Injustice
Thursday, September 10, 2009
बस कि दुश्वार है...
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना
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गिरिया चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना
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वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
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जलवा अज़_बस कि तक़ाज़ा-ए-निगाह करता है
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़ग़ां होना
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इशरत-ए-क़त्लगाह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
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ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बा_सद_रंग-ए-गुलिस्तां होना
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इशरत-ए-पारा-ए-दिल, ज़ख़्म-ए-तमन्नाख़ाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर, ग़र्क़-ए-नमकदां होना
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की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ोद-ए-पशेमां का पशेमां होना
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हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना
दुश्वार=Difficult, मयस्सर=Possible, गिरिया=Weeping, काशाना=Small House, बयाबां=Wilderness,
अज़_बस=Intensely, जौहर=Skill, मिज़ग़ां=Eyelid, इशरत=Joy/Delight, शमशीर=Sword, उरियां=Naked/Bare, निशात(or नशात)=Enthusiasm/Happiness, सद_रंग=Hundred colors,
पारा=Fragment, लज़्ज़त=Taste, रीश=Wound, ग़र्क़=Drown/Sink, नमकदां=Salt Container, ज़ोद=Quickly, पशेमां=Ashamed/Embarrassed, हैफ़=Alas, गिरह=One sixteenth of a yard, गरेबां=Collar
Wednesday, September 2, 2009
बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है...
ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूं मुझको ग़म क्या है
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तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है
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सुख़न में ख़ामा-ए-ग़ालिब की आतिश_अफ़शानी
यक़ीं है हमको भी लेकिन अब उसमें दम क्या है
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ग़म-ए-गेती=Sorrows of the World,
ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर=Servant of the person who serves drinks from 'kausar', a river which flows in heaven,
तर्ज़-ओ-रविश=Behavior and Character, रक़ीब=Rival, लुत्फ़=Bnevolence, सितम=Torture, सुख़न=Poem,
Tuesday, September 1, 2009
दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं....
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूं मैं
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क्यूं गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा ना जाये दिल
इन्सान हूं प्याला-ओ-साग़र नहीं हूं मैं
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या रब ज़माना मुझको मिटाता है किसलिये
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूं मैं
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हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत की वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूं काफ़िर नहीं हूं मैं
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किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़ुमरूद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूं मैं
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रखते हो तुम क़दम मेरी आंखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में महर-ओ-माह से कमतर नहीं हूं मैं
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करते हो मुझको मना-ए-क़दम_बोस किसलिये
क्या आसमां के भी बराबर नहीं हूं मैं
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’ग़ालिब’ वज़ीफ़ाख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गते कि कहते थे नौकर नहीं हूं मैं
Thursday, August 27, 2009
जितने ज़ियादा हो गये उतने ही कम हुये...
जितने ज़ियादा हो गये उतने ही कम हुये
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पिनहां था दाम सख़्त क़रीब आशियां के
उड़ने ना पाये थे कि गिरफ़्तार हम हुये
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हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है
यां तक मिटे कि आप हम अपनी क़सम हुये
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सख़्ती_कशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर
वो लोग रफ़्ता-रफ़्ता सरा_पा अलम हुये
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तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुये
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लिखते रहे जुनूं की हिकायत-ए-खूंचकां
हर चन्द इसमें हाथ हमारे क़लम हुये
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अल्लाह रे! तेरी तुन्दी-ए-ख़ू जिसकी बीम से
अज़्ज़ा-ए-नाला दिल में मेरे रिज़्क़े-हम हुये
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अहल-ए-हवस की फ़तह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो पांव उठ गये वो ही उनके अलम हुये
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नाले अदम में चन्द हमारे सुपुर्द थे
जो वां ना खिंच सके सो वो यां आ के दम हुये
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छोड़ी ’असद’ ना तुमने गदाई में दिललगी
साइल हुये तो आशिक़-ए-अहल-ए-करम
Wednesday, August 26, 2009
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है...
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
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एक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक
एक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे
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जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मेरे आगे
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होता है निहां गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक़ पे दरिया मेरे आगे
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मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे
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सच कहते हो ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूं ना क्यूं हूं
बैठा है बुत-ए-आईना सीमा मेरे आगे
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फिर देखिये अंदाज़-ए-गुलअफ़शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे
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नफ़रत का गुमां गुज़रे है मैं रश्क़ से गुज़रा
क्यूंकर कहूं लो नाम ना उसका मेरे आगे
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ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे क़ुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे
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आशिक़ हूं पे माशूक़_फ़रेबी है मेरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला मेरे आगे
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ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूं मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्रां की तमन्ना मेरे आगे
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है मौज_ज़न इक क़ुलज़ुम-ए-ख़ूं काश यही हो
आता है अभी देखिये क्या क्या मेरे आगे
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गो हाथ को जुम्बिश नहीं आंखों में तो दम है
रहने दो अभे साग़र-ओ-मीना मेरे आगे
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हमपेशा-ओ-हम_मशरब-ओ-हमराज़ है मेरा
ग़ालिब को बुरा क्यूं कहो अच्छा मेरे आगे